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Garh Kundaa by Vrindavan Lal Verma

Garh Kundaa by Vrindavan Lal Verma
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Garh Kundaa by Vrindavan Lal Verma

मानवती के. हाथ में अग्निदत्त ने कमान दी और तीर अपने हाथ में लिया । दोनों के हाथ काँप रहे थे । अग्निदत्त का कंधा मानवती के कंधे से सटा हुआ था । सहसा मानवती की आँखों से आँसुओ की धारा बह निकली । मानवती ने कहा - '' क्या होगा, अंत में क्या होगा, अग्निदत्त?'' '' मेरा बलिदान?'' '' और मेरा क्या होगा? '' तुम सुखी होओगी । कहीं की रानी '' '' धिक्कार है तुमको! तुमको तो ऐसा नहीं कहना चाहिए । '' '' आज मुझे आँखों के सामने अंधकार दिख रहा है । ' ' मानवती की आँखों में कुछ भयानकतामय आकर्षण था । बोली - '' आवश्यकता पड़ने पर स्त्रियाँ सहज ही प्राण विसर्जन कर सकती हैं । '' अग्निदत्त ने उसके कान के पास कहा- '' संसार में रहेंगे तो हम -तुम दोनों एक -दूसरे के होकर रहेंगे और नहीं तो पहले अग्निदत्त तुम्हारी बिदा लेकर । '' दलित सिंहनी की तरह आँखें तरेरकर मानवती ने कहा- '' क्या? आगे ऐसी बात कभी मत कहना । इस सुविस्तृत संसार में हमारे-तुम्हारे दोनों के लिए बहुत स्थान है । '' -इसी उपन्यास से वर्माजी का पहला उपन्यास, जिसने उन्हें श्रेष्‍ठ उपन्यासकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया । हमारे यहाँ से प्रकाशित वर्माजी की प्रमुख कृतियाँ मृगनयनी झाँसी की रानी अमरबेल विराटा की पद्यिनी टूटे काँटे महारानी दुर्गावती कचनार माधवजी सिंधिया गढ़ कुंडार अपनी कहानी.

Books Information
Author NameVrindavan Lal Verma
Condition of BookUsed

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Ex Tax: Rs.157.00
  • Stock: Out Of Stock
  • Model: SGCf03
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