सिद्ध: ताँबे के चूर्ण को मल्लिका की आँच यानी अपनो सखो माया की सहायता से किसी बड़ी आँच में पिघलाकर पलाश के पत्तों के रस से मिला दिया जाय और फिर मुचकुंद का संयोग किया जाय तो चोखा सोना बन जाएगा। कामिनी: मुचकुंद का संयोग क्या और कैसा? सिद्ध: बस, स्वर्ण-रसायन में इतनी ही पहेली और है, थोड़ी देर में बतलाता हूँ; परंतु सोचता हूँ पहले हीरे-मोती बना दूँ। अपना सारा स्वर्ण लाओ। दोनों: बहुत अच्छा। ( दोनों जाती हैं और थोड़ी देर में अपना सब गहना लेकर आ जाती हैं।) सिद्ध: (गहनों को देखकर) तुम्हारे गहनों में कोई हीरे तो नहीं जड़े हैं? कामिनी: नहीं, सिद्धराज। माया: नहीं, महाराज। सिद्ध: कोई मोती? कामिनी: बहुत थोड़े से। माया: मेरे पास तो बिलकुल नहीं हैं। सिद्ध: कुमुदिनी, तुम अपने मोती गिन लो। -इस पुस्तक से स्वर्ण-रसायन के मोह और लोभ में हमारे देश के कुछ लोग कितने अंधे हो जाते हैं और सोना बनवाने के फेर में किस तरह अपने को लुटवा डालते हैं, यह बहुधा सुनाई पड़ता रहता है। वर्माजी ने उज्जैन के नगरसेठ व्याडि तथा कुछ अन्य के स्वर्ण-मोह और एक ठग सिद्ध एवं उसके शिष्य की कथा को आधार बनाकर यह नाटक लिखा है। निश्चय ही यह कृति पाठकों का भरपूर मनोरंजन करेगी।
Books Information | |
Author Name | Vrindavan Lal Verma |
Condition of Book | Used |
- Stock: Out Of Stock
- Model: SGCf19
- ISBN: 9788173154386