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Kankal by Jaishankar Parasad

Kankal by Jaishankar Parasad
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Kankal by Jaishankar Parasad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
, आकस्मिकता और कौतूहल के साथ-साथ मानव मन के भीतरी पर्तों पर होने वाली हलचल इस उपन्यास को गहराई प्रदान करती है। ह्रदय परिवर्तन और सेवा भावना स्वतंत्रताकालीन मूल्यों से जुड़कर इस उपन्यास में संघर्ष और अनुकूलन को भी सामाजिक कल्याण की दृष्टि का माध्यम बना देते हैं।
उपन्यास अपने समय के नेताओं और स्वयंसेवकों के चरित्रांकन के माध्यम से एक दोहरे चरित्रवाली जिस संस्कृति का संकेत करता और बनते हुए जिन मानव संबंधों पर घण्टी और मंगल के माध्यम से जो रोशनी फेंकता है वह आधुनिक यथार्थ की पृष्ठभूमि बन जाता है। सृजनात्मकता की इस सांकेतिक क्षमता के कारण यह उपन्यास यथार्थ के भीतर विद्यमान उन शक्तियों को भी अभिव्यक्त कर सका है जो मनुष्य की जय यात्रा पर विश्वास दिलाती है। 

प्रथम खण्ड

प्रतिष्ठान के खंडहर में और गंगा-तट की सिकता-भूमि में अनेक शिविर और फूल के झोपड़े खड़े हैं। माघ की अमावस्या की गोधूली में प्रयाग के बाँध पर प्रभात का-सा जनरव और कोलाहल तथा धर्म लूटने की धूम कम हो गई है; परन्तु बहुत से घायल और कुचले हुए अर्धमृतकों की आर्त्त-ध्वनि उस पावन प्रदेश को आशीर्वाद दे रही है। स्वयं-सेवक उन्हें सहायता पहुँचाने में व्यस्त हैं। यों तो प्रतिवर्ष यहाँ पर जन-समूह एकत्र होता है, पर अबकी बार कुछ विशेष पर्व की धोषणा की गई थी इसीलिए भीड़ अधिकता से हुई।
कितनों के हाथ टूटे, कितनों का सिर फूटा और कितने ही पसलियों की हड्डियाँ गँवाकर, अधोमुख होकर त्रिवेणी को प्रणाम करने लगे। एक नीरव अवसाद, संध्या में गंगा के दोनों तट पर खड़े झोंपड़ों पर अपनी कालिमा बिखेर रहा था। नंगी पीठ घोड़ों पर नंगे साधुओं के चढ़ने का जो उत्साह था, जो तलवार की फिकैती दिखलाने की स्पर्धा थी, दर्शक-जनता पर बालू की वर्षा करने का जो उन्माद था, बड़े-बड़े कारचोबी झंड़ों को आगे ले चलने का जो आतंक था, वह सब अब फीका हो चला था।

एक छायादार डोंगी, जमुना के प्रशान्त वक्ष को आकुलित करती हुई गंगा की प्रखर धारा को काटने लगी-उस पर चढ़ने लगी। माझियों ने कसकर डाँडे लगाये। नाव झूँसी के तट पर जा लगी। एक सभ्रान्त सज्जन और युवती, साथ में एक नौकर, उस पर से उतरे। पुरुष यौवन में होने पर भी कुछ खिन्न-सा था, युवती हँसमुख थी; परन्तु नौकर बड़ा ही गंभीर बना था। यह सम्भवतः उस पुरुष की प्रभावशालिनी शिष्टता की शिक्षा थी। उसके हाथ में एक बाँस की डोलची थी, जिसमें कुछ फल और मिठाइयाँ थी। साधुओं के शिविरों की पंक्ति सामने थी, वे लोग उसी ओर चले।
सामने से दो मनुष्य बातें करते आ रहे थे-
‘‘ऐसी भव्य मूर्ति इस मेले भर में दूसरी नहीं है।’’
‘‘जैसे साक्षात् भगवान का अंश हो।’’
‘‘अजी ब्रह्मचर्य का तेज है।’’
‘‘अवश्य महात्मा है।’’
‘‘वे दोनों चले गये।’’

यह दल भी उसी शिविर को ओर चल पड़ा, जिधर से दोनों बातें करते आ रहे थे। पट-मण्डल के समीप पहुँचने पर देखा, बहुत-से दर्शक खड़े हैं। एक विशिष्ट आसन पर एक बीस वर्ष का युवक हल्के रंग काषाय वस्त्र अंग पर डाले बैठा है। जटा-जूट नहीं था, कंधे तक बाल बिखरे थे। आँखें संयम के मद से भरी थीं। पुष्ट भुजाएँ और तेजोमय मुख-मण्डल से आकृति बड़ी प्रभावशालिनी थी। सचमुच वह युवक तपस्वी भक्ति करने योग्य था। आगन्तुक और उसकी युवती स्त्री ने विनम्र होकर नमस्कार किया और नौकर के हाथ से लेकर उपहार सामने रक्खा। महात्मा ने सस्नेह मुस्करा दिया। वे सामने बैठे हुए भक्त लोग कथा कहनेवाले एक साधु की बातें सुन रहे थे। वह एक पद की व्याख्या कर रहा था-‘तासों चुप ह्वै रहिए’ गूँगा गुड़ का स्वाद कैसे बतावेगा; नमक की पुतली जब लवण-सिन्धु में गिर गई, फिर वह अलग होकर क्या अपनी सत्ता बतावेगी ! ब्रह्म के लिए भी वैसे ही ‘इदमित्थ’ कहना असंभव है, इसीलिए महात्मा ने कहा है-‘तासों चुप ह्वै रहिये।’
उपस्थित साधु और भक्तों ने एक-दूसरे का मुँह देखते हुए प्रसन्नता प्रकट की। सहसा महात्मा ने कह-ऐसा ही उपनिषदों में भी कहा है-‘अवचेतन प्रोवच !’ भक्त मण्डली ने इस विद्वता पर आश्चर्य प्रकट किया और ‘धन्य-धन्य’ के शब्द से पट-मण्डप गूँज उठा।

सम्भ्रांत पुरुष सुशिक्षित था। उसके हृदय में यह बात समा गई कि महात्मा वास्तविक ज्ञान-सम्पन्न महापुरुष हैं। उसने अपने साधु-दर्शन की इच्छा की सराहना की और भक्तिपूर्वक बैठकर ‘सत्संग’ सुनने लगा।
रात हो गई; जगह-जगह पर अलाव धधक रहे थे। शीत की प्रबलता थी। फिर भी धर्म-संग्राम के सेनापति लोग शिविरों में डटे रहे थे। कुछ ठहरकर आगन्तुक ने जाने की आज्ञा चाही। महात्मा ने पूछा-आप लोगों का शुभ नाम और परिचय क्या है ?
हम लोग अमृतसर के रहने वाले हैं, मेरा नाम श्रीचन्द्र है और यह मेरी धर्मपत्नी है।–कह कर श्रीचन्द्र ने युवती की ओर संकेत किया। महात्मा ने भी उसकी ओर देखा। युवती ने उस दृष्टि से यह अर्थ निकाला कि महात्माजी मेरा भी नाम पूछ रहे हैं। वह जैसे किसी पुरस्कार पाने की प्रत्याशा और लालच से प्रेरित होकर बोल उठी-दासी का नाम किशोरी है। 
महात्मा की दृष्टि से जैसे एक आलोक घूम गया। उसने सिर नीचा कर लिया, और बोला-अच्छा विलम्ब होगा, जाइए। भगवान का स्मरण रखिए।
श्रीचन्द्र किशोरी के साथ उठे। प्रणाम किया और चले।
साधुओं का भजन-कोलाहल शान्त हो गया था। निस्तब्धता रजनी के मधुर क्रोड़ में जाग रही थी। निशीथ के नक्षत्र गंगा के मुकुर में अपना प्रतिबिम्ब देख रहे थे। शीत पवन का झोंका सबको आलिंगन करता हुआ विरक्त के समान भाग रहा था। महात्मा के हृदय में हलचल थी। वह निष्पाप हृदय दुश्चिन्ता से मलिन, शिविर छोड़कर कम्बल डाले, बहुत दूर गंगा की जलधारा के समीप खड़ा होकर अपने चिरसञ्चित पुण्यों को पुकारने लगा। 

वह अपने विराग को उत्तेजित करता; परन्तु मन की दुर्बलता प्रलोभन बन कर विराग की प्रतिद्वन्द्विता करने लगती और इसमें उसके अतीत की स्मृति भी उसे धोखा दे रही थी। जिन-जिन सुखों को वह त्यागने के लिए चिन्ता करता, वे ही उसे धक्का देने का उद्योग करते। दूर, सामने दीखने वाली कलिन्दजा की गति का अनुकरण करने के लिए वह मन को उत्साह दिलाता; परन्तु गम्भीर अर्द्ध निशीथ के पूर्ण उज्जवल नक्षत्र बालकाल की स्मृति के सदृश मानस-पटल पर चमक उठते थे। अनन्त आकाश में जैसे अतीत की घटनाएँ रजताक्षरों से लिखी हुई उसे दिखाई पड़ने लगीं-
झेलम के किनारे एक बालिका और एक बालक अपने प्रणय के पौधे को अनेक क्रीड़ा-कुतूहलों के जल से सींच रहे हैं। बालिका के हृदय में असीम अभिलाषा और बालक के हृदय में अदम्य उत्साह। बालक रंजन आठ वर्ष का हो गया और किशोरी सात की। एक दिन अकस्मात् रंजन को लेकर उसके माता-पिता हरद्वार चल पड़े। उस समय किशोरी ने पूछा-रंजन, कब आओगे ?
उसने कहा-बहुत ही जल्द। तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी गुड़ियाँ ले आऊँगा।

रंजन चला गया। जिस महात्मा की कृपा और आशीर्वाद से उसने जन्म लिया था, उसी के चरणों में चढ़ा दिया गया। क्योंकि उसकी माता ने सन्तान होने के लिए ऐसी ही मनौती की थी।
निष्ठुर माता-पिता ने अन्य सन्तानों के जीवित रहने की आशा से अपने ज्येष्ठ पुत्र को महात्मा का शिष्य बना दिया। बिना उसकी इच्छा के वह संसार से-जिसे उसने अभी देखा भी नहीं था-अलग कर दिया गया। उसका गुरुद्वारे का नाम देवनिरंजन हुआ। वह सचमुच आदर्श ब्रह्मचारी बना। वृद्ध गुरुदेव ने उसकी योग्यता देखकर उसे उन्नीस वर्ष की ही अवस्था में गद्दी का अधिकारी बनाया। वह अपने संघ का संचालन अच्छे ढंग से करने लगा।
हरद्वार में उस नवीन तपस्वी की सुख्याति पर बूढ़े-बूढ़े बाबा लोग ईर्ष्या करने लगे। और इधर निरंजन के मठ की भेंट-पूजा बढ़ गई; परन्तु निरंजन सब चढ़े हुए धन का सदुपयोग करता था। उसके सदनुष्ठान का गौरव-चित्र आज उसकी आँखों के सामने खिंच गया और वह प्रशंसा और सुख्याति के लोभ दिखाकर मन को नई कल्पनाओं से हटाने लगा; परन्तु किशोरी के नाम ने उसे बारह वर्ष की प्रतिमा का स्मरण दिला दिया। उसने हरद्वार आते हुए कहा-था किशोरी, तेरे लिए गुड़ियाँ ले आऊँगा। क्या यह वही किशोरी है ? अच्छा यदि है, तो इसे संसार में खेलने के लिए गुड़िया मिल गई। उसका पति है, वह उसे बहलायेगा। मुझ तपस्वी को इससे क्या ! जीवन का बुल्ला विलीन हो जायेगा। ऐसी कितनी ही किशोरियाँ अनन्त समुद्र में तिरोहित हो जायेंगी। मैं क्यों चिन्ता करूँ ?

परन्तु प्रतिज्ञा ! ओह वह स्वप्न था, खिलवाड़ था। मैं कौन हूँ किसी को देने वाला, वही अन्यर्यामी सबको देता है। मूर्ख निरंजन ! सम्हल !! कहाँ मोह के थपेड़े में झूमना चाहता है ? परन्तु यदि वह कल फिर आई तो ?-भागना होगा। भाग निरंजन, इस माया से हारने के पहले युद्ध होने का अवसर ही मत दे।
निरंजन धीरे-धीरे अपने शिविर को बहुत दूर छोड़ता हुआ, स्टेशन की ओर विचरता हुआ चल पड़ा। भीड़ के कारण बहुत सी गाड़ियाँ बिना समय भी आ-जा रही थी। निरंजन ने एक कुली से पूछा-यह गाड़ी कहाँ जायेगी ?
सहारनपुर-उसने कहा।
देवनिरंजन गाड़ी में चुपचाप बैठ गया।
दूसरे दिन जब श्रीचन्द्र और किशोरी साधु-दर्शन के लिए फिर उसी स्थान पर पहुँचे, तब वहाँ अखाड़े के साधुओं को बडा व्यग्र पाया। पता लगाने पर मालूम हुआ कि महात्माजी समाधि के लिए हरद्वार चले गये। यहाँ उनकी उपासना में कुछ विघ्न होता था। वे बड़े त्यागी हैं। उन्हें गृहस्थों की बहुत झंझट पसन्द नहीं। यहाँ धन और पुत्र माँगनेवालों तथा कष्ट से छुटकारा पानेवालों की प्रार्थना से वे ऊब गये थे।

किशोरी ने कुछ तीखे स्वर से अपने पति से कहा-मैं पहले ही कहती थी कि तुम कुछ न कर सकोगे । न तो स्वयं कहा और न मुझे प्रार्थना करने दी।
विरक्त होकर श्रीचन्द्र ने कहा-तो तुमको रोका किसने था। तुम्ही ने क्यों न सन्तान के लिए प्रार्थना की ! कुछ मैंने बाधा तो दी न थी।
उत्तेजित किशोरी ने कहा-अच्छा तो हरद्वार चलना होगा।
चलो, मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँगा। और अमृतसर आज तार दे दूँगा कि मैं हरद्वार होता हुआ आता हूँ; क्योंकि मैं व्यवसाय इतने दिनों तक यों ही नहीं छोड़ सकता।
अच्छी बात है; परन्तु मैं हरद्वार अवश्य जाऊँगी। 
सो तो मैं जानता हूँ-कहकर श्रीचन्द्र ने मुँह भारी कर लिया; परन्तु किशोरी को अपनी टेक रखनी थी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि उन महात्मा से मुझे अवश्य सन्तान मिलेगी ।

उस दिन श्रीचन्द्र ने हरद्वार के लिए प्रस्थान किया। और अखाड़े के भंडारी ने भी जमात लेकर हरद्वार जाने का प्रबन्ध किया।
हरद्वार के समीप ही जाह्नवी के तट पर तपोवन का स्मरणीय दृश्य है। छोटे-छोटे कुटीरों की श्रेणी बहुत दूर तक चली गई है। खरस्रोता जाह्नवी की शीतल धारा उस पावन प्रदेश को अपने कल-नाद से गुंजारित करती है। तपस्वी अपनी योग-चर्या-साधन के लिए उन छोटे-छोटे कुटीरों में रहते हैं। ब़ड़े-बड़े मठों से अन्नसत्र का प्रबन्ध है। वे अपनी भिक्षा ले आते हैं और इसी निभृत स्थान में बैठकर अपने पाप का प्रक्षालन करते हुए ब्रह्मानन्द का सुख भोगते हैं। सुन्दर शिला-खण्ड, रमणीय लता-विमान, विशाल वृक्षों की मधुर छाया, अनेक प्रकार के पक्षियों का कोमल कलरव वहाँ एक अद्भुत शान्ति का सृजन करता है। आरण्यक-पाठ के लिए उपयुक्त स्थान है।

गंगा की धारा जहाँ घूम गई है वह एक छोटा-सा कोना अपने सब साथियों को छोड़कर आगे निकल गया है। वहाँ एक सुन्दर कुटी है जो नीची पहाड़ी की पीठ पर जैसे आसन जमाये बैठी है। उसी की दालान में निरंजन गंगा की धारा की ओर मुँह किये ध्यान में निमग्न है। यहाँ रहते हुए कई दिन बीत गये। आसन और दृढ़ धारणा से अपने मन को संयम में ले आने का प्रयत्न लगातार करते हुए भी शान्ति नहीं लौटी। विक्षेप बराबर होता था। जब ध्यान करने का समय होता, एक बालिका की मूर्ति सामने आ खड़ी होती। वह उसे माया आवरण कहकर तिरस्कार करता; परन्तु वह छाया जैसे ठोस हो जाती। अरुणोदय की रक्त किरणें आँखों में घुसने लगतीं थी। घबराकर तपस्वी ने ध्यान छोड़ दिया। देखा कि पगडण्डी से एक रमणी उस कुटीर के पास आ रही है। तपस्वी को क्रोध आया। उसने समझा कि देवताओं को तप में प्रत्यूह डालने का क्यों अभ्यास होता है ? क्या वे मनुष्यों के समान ही द्वेष आदि दुर्बलताओं से पीड़ित हैं ?
रमणी चुपचाप समीप चली आई। साष्टांग प्रणाम किया। तपस्वी चुप था, वह क्रोध से भरा था; परन्तु न जाने क्यों उसे तिरस्कार का साहस न हुआ। उसने कहा-उठो, तुम यहाँ क्यों आई।

किशोरी ने कहा-महाराज, अपना स्वार्थ ले आया-मैंने आज तक सन्तान का मुँह नहीं देखा।
निरंजन ने गंभीर स्वर में पूछा-अभी तो तुम्हारी अवस्था अठारह-उन्नीस से अधिक नहीं, फिर इतनी दुश्चिन्ता क्यों ?
किशोरी के मुख पर लज्जा की लाली थी; वह अपनी वयस की नाप-तोल से संकुचित हो रही थी। परन्तु तपस्वी का विचलित हृदय इसे व्रीड़ा समझने लगा। वह जैसे लड़खड़ाने लगा। सहसा सम्हल कर बोला-अच्छा। तुमने यहाँ आकर ठीक नहीं किया। जाओ मेरे मठ में आना-अभी दो दिन ठहरकर। यह एकान्त योगियों की स्थली हैं, यहाँ से चली जाओ।–तपस्वी अपने भीतर किसी से लड़ रहा था।
किशोरी ने अपनी स्वाभाविक तृष्णा भरी आँखों से एक बार उस सूखे यौवन का तीव्र आलोक देखा; वह बराबर देख न सकी, छलछलाई आँखें नीची हो गईं। उन्मत के समान निरंजन ने कहा-बस जाओ !
किशोरी लौटी और अपने नौकर के साथ, जो थोड़ी दूर पर खड़ा था, ‘हर की पैड़ी’ की ओर चल पड़ी। चिन्ता और अभिलाषा से उसका हृदय नीचे-ऊपर हो रहा था।

रात एक पहर गई होगी, ‘हर की पैड़ी’ के पास ही एक घर की खुली खिड़की के पास किशोरी बैठी थी। श्रीचन्द्र को यहाँ आते ही तार मिला की तुम तुरन्त चले आओ। व्यवसाय-वाणिज्य के काम अटपट होते हैं; वह चला गया। किशोरी नौकर के साथ रह गई। नौकर विश्वासी और पुराना था। श्रीचन्द्र की लाडली स्त्री किशोरी मनस्विनी थी ही।
ठंड का झोंका खिड़की से आ रहा था; परन्तु अब किशोरी के मन में बड़ी उलझन थी-कभी वह सोंचती मैं क्यों यहाँ रह गई क्यों न उन्हीं के संग चली गई। फिर मन में आता, रुपये-पैसे तो बहुत हैं, जब उन्हें भोगनेवाला ही कोई नहीं, फिर उसके लिए उद्योग न करना भी मूर्खता है। ज्योतिषी ने भी कह दिया है, संतान बड़े उद्योग से होगी। फिर मैंने क्या बुरा किया ?
अब शीत की प्रबलता हो चली थी। उसने चाहा, खिड़की का पल्ला बन्द कर ले। सहसा किसी के रोने की ध्वनि सुनाई दी। किशोरी को उत्कंठा हुई, परन्तु क्या करे, ‘बलदाऊ’ बाजार गया था। थोड़े ही समय में बलदाऊ आता दिखाई पड़ा।
आते ही उसने कहा-बहूरानी कोई गरीब स्त्री रो रही है। यहीं नीचे पड़ी है।

किशोरी भी दुःखी थी। संवेदना से प्रेरित होकर उसने कहा-उसे लिवाते क्यों नहीं आये, कुछ उसे दे दिया जाता।
बलदाऊ सुनते ही फिर नीचे उतर गया। उसे बुला लाया। वह एक युवती विधवा थी। बिलख-बिलखकर रो रही थी। उसके मलिन वसन का अंचल तर हो गया था। किशोरी के आश्वासन देने पर वह सम्हली और बहुत पूछने पर उसने अपनी कथा सुना दी-विधवा का नाम रामा है, बरेली की एक ब्राह्मण-वधू है। दुराचार का लांछन लगाकर उसके देवर ने उसे यहाँ लाकर छोड़ दिया। उसके पति के नाम की कुछ भूमि थी, उस पर अधिकार जमाने के लिए यह कुचक्र रचा है।
किशोरी ने उसके एक-एक अक्षर पर विश्वास किया; क्योंकि वह देखती है कि परदेश में उसके पति ने ही उसे छोड़ दिया और स्वयं चला गया। उसने कहा-तुम घबराओ मत, मैं यहाँ अभी कुछ दिन रहूँगी। मुझे एक ब्राह्मणी चाहिए ही, तुम मेरे पास रहो। मैं तुम्हें बहन के समान रक्खूँगी।

रामा कुछ प्रसन्न हुई। उसे आश्रय मिल गया। किशोरी शैय्या पर लेटे-लेटे सोचने लगी-पुरुष बड़े निर्मोही होते हैं, देखो वाणिज्य-व्यवसाय का इतना लोभ कि मुझे छोड़कर चले गये। अच्छा, जब तक वे स्वयं नहीं आवेंगे, मैं भी नहीं जाऊँगी। मेरा भी नाम ‘किशोरी’ है-यही चिन्ता करते-करते किशोरी सो गई।
दो दिन तक तपस्वी ने मन पर अधिकार जमाने की चेष्टा की; परन्तु वह असफल रहा। विद्वता के लिए जितने तर्क जगत को मिथ्या प्रमाणित करने के लिए थे, उन्होंने उग्र रूप धारण किया। वे अब समझाते थे-जगत् तो मिथ्या है ही, इसके जितने कर्म हैं, वे भी माया हैं। प्रमाता जीव भी प्रकृति है, क्योंकि वह भी अपरा प्रकृति है। जब विश्व मात्र प्राकृत है, तब इसमें अलौकिक अध्यात्म कहाँ। यही खेल जगत बनानेवाले का है, तो वह मुझे खेलना ही चाहिए। वास्तव में गृहस्थ न होकर भी मैं वही सब तो करता हूँ जो एक संसारी करता है-वही आय-व्यय का निरीक्षण और उसका उपयुक्त व्यवहार; फिर यह सहज उपलब्ध सुख क्यों छोड़ दिया जाय ?

त्यागपूर्ण थोथी दार्शनिकता जब किसी ज्ञानाभास को स्वीकार कर लेती है; तब उसका धक्का सम्हालना मनुष्य का काम नहीं।
उसने फिर सोचा-मठधारियों, साधुओं के लिए वे सब पथ खुले होते हैं। यद्यपि प्राचीन आर्यों की धर्मनीति में इसीलिए कुटीचर और एकान्तवासियों का ही अनुमोदन किया है; परन्तु संघबद्ध होकर बौद्धधर्म ने जो यह अपना कूड़ा छोड़ दिया है, उसे भारत के धार्मिक सम्प्रदाय अभी भी फेंक नहीं सकते। तो फिर चले संसार अपनी गति से।
देवनिरंजन अपने विशाल मठ में लौट आया। और महन्ती नये ढंग से देखी जाने लगी। भक्तों की पूजा, और चढ़ाव का प्रबन्ध होने लगा। गद्दी और तकिये की देख-भाल चली। दो ही दिन में मठ का रूप बदल गया।

एक चाँदनी रात थी। गंगा के तट पर अखाडे़ से मिला हुआ उपवन था। विशाल वृक्ष की विरल छाया में चाँदनी उपवन की भूमि पर अनेक चित्र बना रही थी। वसंत-समीर ने कुछ रंग बदला था। निरंजन मन के उद्वेग से वहीं टहल रहा था। किशोरी आई। निरंजन चौंक उठा। हृदय में रक्त दौड़ने लगा।
किशोरी ने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, मेरे ऊपर दया न होगी ?
निरंजन ने कहा-किशोरी, तुम मुझको पहचानती हो ? 
किशोरी ने उस धुंधले प्रकाश में पहचानने की चेष्टा की; परन्तु वह असफल होकर चुप रही ?
निरंजन ने फिर कहना प्रारम्भ किया-झेलम के तट पर रंजन और किशोरी नाम के दो बालक और बालिका खेलते थे। उनमें बड़ा स्नेह था। रंजन जब अपने पिता के साथ हरद्वार जाने लगा, तब उसने कहा था कि-किशोरी, तेरे लिए मैं गुड़िया ले आऊँगा; परन्तु यह झूठा बालक अपनी बाल-संगिनी के पास फिर न लौटा। क्या तुम वही किशोरी हो ?
उसका बाल सहचर इतना बड़ा महात्मा !-किशोरी की समस्त धमनियों में हलचल मच गयी। वह प्रसन्नता से बोल उठी-‘‘और क्या तुम वही रंजन हो ?’’
Books Information
Author NameJai Shankar Prasad
Condition of BookUsed

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Ex Tax: Rs.60.00
  • Stock: Out Of Stock
  • Model: sg220
Tags: novel
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